राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कहते थे कि उनकी ज़िंदगी पर कई लोगों ने गहरा असर डाला. इनमें से एक थे, ब्रिटिश विद्वान जॉन रस्किन. रस्किन की किताब-अनटू दिस लास्ट के बारे में गांधी जी ने कहा था कि इसने मेरी ज़िंदगी को बदल कर रख दिया.
इस साल जॉन रस्किन की दो सौवीं सालगिरह है. वो 8 फ़रवरी 1819 को लंदन में पैदा हुए थे. माना जाता है कि जॉन रस्किन न केवल अपने वक़्त के, बल्कि आने वाली एक सदी पर गहरा असर डालने वाले इंसान थे. उन्हें आधुनिक इतिहास का सबसे असरदार व्यक्ति माना जाता है.
उन्होंने ब्रिटिश लेखिका शार्लोट ब्रोंटे से लेकर रूसी विद्वान लेव टॉल्सटॉय और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तक की ज़िंदगी पर गहरा असर डाला था. उनसे प्रेरणा लेकर ही ब्रिटेन में सांस्कृतिक विरासत को सहेजने के लिए नेशनल ट्रस्ट की स्थापना हुई थी.
जॉन रस्किन एक कलाकार थे. एक आलोचक थे और समाज सुधारक भी थे. वो ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया के दौर के बेहद प्रभावशाली लोगों में से एक थे. उनका जन्म उसी साल हुआ था जब महारानी विक्टोरिया का हुआ था.
जॉन रस्किन को विरोधाभासों वाला इंसान कहें तो ग़लत नहीं होगा. वो कहा करते थे कि हमेशा धारा के विपरीत तैरना चाहिए. रस्किन ख़ुद को रुढ़िवादी और सामंतवादी कहते थे.
लेकिन, उनके बहुत से विचार समाजवादी थे. वो समाज में ऊंच-नीच के दर्जे में बहुत यक़ीन रखते थे. पर, रस्किन ये भी मानते थे कि रईसों की ये ज़िम्मेदारी है कि वो ग़रीबों का ध्यान रखें. वो अमीर ख़ानदान से ताल्लुक़ रखते थे. मगर, रस्किन ने अपनी बहुत सी संपत्ति दान कर दी थी.
अपनी आत्मकथा में जॉन रस्किन ने लिखा है कि, 'शायद एक छोटे से घर में रहना ज़्यादा ख़ुशी देता है. ऐसा कर के हम किसी महल को चौंका सकते हैं. पर, यदि हम किसी महल में रहते हैं, तो इसमें चौंकाने वाली कोई बात नहीं.'
जॉन रस्किन के पिता धनी कारोबारी थे. वहीं उनकी मां एक शराबख़ाने वाले ज़मींदार की बेटी थीं. वो अपने बेटे के बारे में बहुत शिकायती रहती थीं. जब 1836 में रस्किन पढ़ने के लिए ऑक्सफ़ोर्ड गए, तो उनकी मां ने कहा कि वो भी साथ जाएंगी और रोज़ उनके साथ चाय पिएंगी.
रस्किन ने लिखा है कि उनके पिता ने उनके भविष्य का पूरा ताना-बाना बुन रखा था. रस्किन के पिता चाहते थे कि वो देश के मशहूर संस्थान से दो फ़र्स्ट क्लास डिग्रियां हासिल करें.
पढ़ाई के दौरान हर पुरस्कार वही जीतें. किसी मशहूर युवती से ब्याह करें. लॉर्ड बायरन जैसी कविताएं लिखें, जो केवल पवित्रता से भरी हों. फिर वो लोगों को धर्म की दीक्षा दें. हमेशा प्रोटेस्टेंट ईसाई रहें. 40 बरस की उम्र में पादरी बन जाएं. पचास साल की उम्र में पूरे ब्रिटेन के धर्म गुरू बन जाएं.
यूं तो जॉन रस्किन ने कभी भी धर्म की दीक्षा नहीं ली. लेकिन, उन्होंने शास्त्रों और गणित में अव्वल दर्जे की डिग्री हासिल की. इसके अलावा जॉन रस्किन ने अपनी ज़िंदगी में पिता की उम्मीदों से कहीं ज़्यादा उपलब्धियां हासिल कीं.
लंदन में हाल ही में मशहूर नुमाइशघर टू टेंपल प्लेस में रस्किन से जुड़ी चीज़ों की प्रदर्शनी लगी थी. बाद में ये प्रदर्शनी शेफ़ील्ड शहर में भी लगी. इसमें उनकी बनाई हुई कलाकृतियां और ख़ुद का पोर्ट्रेट भी शामिल हैं.
यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएट होने के साथ ही जॉन रस्किन ने कला की अच्छी समझ हासिल कर ली थी. उन्होंने जेएमडब्ल्यू टर्नर की पेंटिंग्स को मशहूर किया. उस वक़्त के सारे आलोचक टर्नर की पेंटिंग्स को घटिया बताते थे. लेकिन, रस्किन ने टर्नर की इतनी तारीफ़ की कि वो आज तक मशहूर हैं.
हालांकि आलोचकों ने रस्किन की तारीफ़ को उस वक़्त ख़ारिज कर दिया था. लेकिन, जनता ने उन्हें हाथों-हाथ लिया. नए कलाकारों के बारे में उनकी पांच किताबों की सिरीज़ मॉडर्न पेंटर 1843 में लिखी गई थी. उनकी लेखनी की तारीफ़ करने वालों में शार्लोट ब्रोंटे, विलियम वर्ड्सवर्थ और अल्फ्रेड, लॉर्ड टेनिसन भी शामिल थे.
अपनी तमाम किताबों के ज़रिए जॉन रस्किन ने अपने दौर की पीढ़ी ही नहीं, आने वाली कई नस्लों पर गहरा असर डाला. उन्होंने ऐसे कई कलाकारों को शोहरत दिलाई, जिन्हें इंग्लैंड के लोग नहीं जानते थे.
ये रस्किन ही थे, जिन्होंने वेनिस के कलाकार टिंटोरेटो की तारीफ़ कर के दुनिया की इटैलियन कला में दिलचस्पी दोबारा जगाई. रस्किन ने वेनिस शहर की इमारतों और कला की कई ड्रॉइंग बनाई, ताकि वो वक़्त के थपेड़ों से ख़त्म न हो जाएं.
जॉन रस्किन केवल बुद्धिमान आलोचक भर नहीं थे. वो ख़ुद भी अच्छे कलाकार थे. वो अच्छी पेंटिंग्स बनाने के लिए अंदर से प्रेरणा महसूस करते थे. करौंदे की झाड़ी, पहाड़ों, घटाओं, परिंदों और खनिजों की पेंटिंग बनाने में रस्किन को महारत हासिल थी. वो लंदन के चिड़ियाघर में जाकर वहां के जानवरों की पेंटिंग बनाया करते थे. रस्किन का मानना था कि कला को क़ुदरत का आईना होना चाहिए.
जॉन रस्किन चाहते थे कि उनका हुनर अगली पीढ़ी को जाना चाहिए. वो मानते थे कि उनके पास जो क़ाबिलियत है, उसके मालिक सिर्फ़ वो नहीं, बल्कि उस पर दूसरों का भी हक़ है.
यही बात उन्हें बाक़ी लोगों से अलग खड़ा कर देती थी. वो लंदन में कामगारों के वर्किंग मेन कॉलेज में भी उसी रौ में पढ़ाते थे, जिस अल्हड़पन के साथ वो ऑक्सफोर्ड में लेक्चर दिया करते थे. रस्किन के लेक्चर सुनने के लिए सैकड़ों की तादाद में लोग जुटा करते थे. वो अजीबो-ग़रीब पोशाकें पहनकर पढ़ाने जाया करते थे.
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