अख़बार टीवी इंटरनेट से लेकर सोशल मीडिया तक कई चुनावी विश्लेषणों, आलेखों, टिप्पणियों और साक्षात्कारों से ऐसा आभास मिल रहा है कि चुनाव के नतीजे जब आएं तब आएं लेकिन अंजाम तो पहले से पता है.
कहीं मद्धम, कहीं स्पष्ट, कहीं इशारों में तो कहीं बेबाक, कहीं बिटवीन द लाइन्स तो कहीं खुलकर कहा जाने लगा है कि इस बार पलड़ा तो सत्तारूढ़ गठबंधन का ही भारी है. अपने तर्कों को सहारा देने के लिए उन नारों के इस्तेमाल से भी परहेज़ नहीं किया जा रहा है जो एक व्यक्ति विशेष पर केंद्रित हैं या उसके नाम से चलाए जा रहे हैं. ये विश्लेषण आनन फानन और उपलब्ध सुलभता में नतीजा निकालते दिखते हैं.
विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिहाज़ से ऐसे किसी नज़रिए पर भला क्या एतराज़ हो सकता है लेकिन एक पत्रकार, लेखक या विश्लेषक के लिहाज़ से देखें तो कुछ सवाल उभरते हैं. सबसे बड़ा सवाल है कि आखिर लेखन या विश्लेषण में कौन से पैमाने एक पहले से प्रचलित नैरेटिव को ही मजबूती देने या उसे अग्रसर करने के लिए रखे जाते हैं- वो कौन सा दृष्टिकोण होता है जो स्थापित विमर्श से ही अपने लिए सूत्र हासिल करता है.
फिर राजनीतिक निरपेक्षता, कथित तटस्थता, पत्रकारीय रणनीति, नैतिकता या लेखकीय उसूलों के प्रश्न भी उठते हैं. इन्हीं उसूलों की छानबीन करते हुए फ्रांसीसी उपन्यासकार और दार्शनिक ज़ुलियां बेन्डअ ने 'बौद्धिक विश्वासघात' जैसी अवधारणा दी थी.
चुनावी नतीजे वैसे शायद न हों जैसा कि उनके बारे में कुछ अतिरेक और कुछ उत्साह में दावे किये जाने लगे हैं. ऐसा आकलन कठिन इसलिए नहीं कि जमीन पर ऐसा वास्तव में नहीं है तो कैसे कह दें. कठिन इसलिए है क्योंकि ऐसा न होना 'दिखाया' जा रहा है कि आप इसी गर्दोगुबार और जय जयकार में ही देखिए. वरना आपकी दृष्टि पर ही प्रश्नचिन्ह!
कमाल है, आप ये देख रहे हैं जबकि देखिए गली मोहल्लों से लेकर झंडे बैनर तक एक ही नाम छाया हुआ है!- क्योंकि चारों ओर जिन छवियों का निर्माण किया गया है वे छवि पुरुष की जीत की ओर सघन इशारे करती पेश की गई हैं.
थोड़ा ठहरकर मीडिया और कल्चरल स्टडीज से जुड़े सिद्धांतों की ओर देखना चाहिए. यानी यूं तो वे सब किताबी बातें हैं, कहकर टाल दी जाती हैं और पत्रकारिता और जनसंचार के छात्रों के रटने रटाने के लिए बताई जाती हैं लेकिन आप पाएंगे कि वे पाठ्यक्रमों में यूं ही नहीं चली आई हैं.
समकालीन वैश्विक राजनीतिक-आर्थिकी के परिदृश्य और पृष्ठभूमि में उनका महत्त्व रहा है. होस्टाइल मीडिया पर्सेप्शन या होस्टाइल मीडिया अफ़ेक्ट एक ऐसी ही अवस्थिति है जो इन्द्रियबोध तक ही सीमित नहीं है बल्कि जिसका संबंध एक बाहरी उद्दीपन या प्रभाव से है.
ये पर्सेप्शन चुनिंदा तरीकों में परिलक्षित या घटित होता है. मेनस्ट्रीम मीडिया का निर्मित किया हुआ, मीडिया में विशिष्ट दबाव समूह या शक्तिशाली लॉबी का बनाया हुआ, पत्रकार से होता हुआ, और फिर आम लोगों के पास पहुंचता हुआ जो इस पर्सेप्शन को समाचार सामग्री के रूप में देखते पढ़ते या सुनते हैं- वे जो उसके आखिरी उपभोक्ता हैं और इस तरह ये उत्पादन और उपभोग का चक्र जारी रहता है.
ये गली नुक्कड़ चौराहे पान या चाय या मिठाई की दुकान से लेकर मॉल, कॉफी हाउस, क्लब, ऑडिटोरियम, संस्थान, सेमिनार, गोष्ठी से लेकर झंडे, डंडे, पट्टे, जुलूस और जयकार तक जाता है और ज़ाहिर है वहां से लौटता भी है और फैलता भी है.
इस तरह व्यक्ति, विषय और बहसें निर्मित की जाती हैं- व्यक्ति की व्यापकता और असाधारण काबिलियतों पर संदेह की गुंजायश नहीं छोड़ी जाती- यानी जहां संदेह रखना एक पेशेवर ज़रूरत भी समझी जाती है- वहां से भी उसे ग़ायब कर दिया जाता है. इस तरह मामला 'क्रिस्टल क्लियर' या पानी की तरह साफ़ हो जाता है. और वो ये कि 'साब! इनका तो मुक़ाबला ही नहीं. यही आगे हैं, और बने रहेंगे.'
मुख्यधारा के टीवी और अखबारों और बड़े अखबारी स्वामित्व वाली समाचार वेबसाइटों और सोशल मीडिया के ज़रिए सायास रचा जा रहा है जो नैरेटिव सजग नागरिक बोध से धीरे धीरे दूर करता है. फिर आगे चलकर ये बोध पूरी तरह 'प्रभाव' में कंवर्ट हो जाता है.
समाचार निरपेक्ष उपभोक्ता बना रहा है जो सही या गलत का नहीं स्वाद और क्वालिटी के लिहाज़ से व्यक्ति या घटना पर अपनी राय बनाते हैं चूंकि समाचार एक पीआर उत्पाद की तरह आता है. इस नैरेटिव का दूसरा पहलू है किसी व्यक्ति के पक्ष में 'लार्जर देन लाइफ़' छवि का निर्माण.
इतालवी लेखक उम्बर्तो इको ने अपनी एक अखबारी टिप्पणी, "अनहैप्पी इज़ द लैंड" में बताया कि एक अप्रसन्न देश वो है जहां के नागरिक ये नहीं जान पाते कि उनके दायित्व क्या हैं और करिश्मा कर सकने वाले लीडर का इंतज़ार करते रहते हैं कि वही बताएगा उन्हें क्या करना है.
इको ने उपरोक्त बात, जर्मन कवि-नाटककार बर्तोल्त ब्रेष्ट के नाटक 'गैलेलियो' में आए एक विख्यात कथन के हवाले से कही थीः "अनहैप्पी इज़ द लैंड दैट नीड्स हीरोज़."
तो क्या हमें इस बात की भूरिभूरि प्रशंसा करनी चाहिए कि फलां का पीआर और विज्ञापनी चातुर्य अव्वल है इसलिए वो आगे है. हम अपना स्टैंड क्यों नहीं लेते और करतबी तौरतरीकों को अपने मूल्यांकन का आधार बनाने से परहेज़ करने की कोशिश क्यों नहीं करते हैं? और क्यों नहीं मीडिया संदेशों से प्रभावित हुए बिना अपना विचार रख पाते हैं? इन सवालों से हमें कभी न कभी रूबरू तो होना ही पड़ेगा.
कॉरपोरेट मीडिया और सत्ता राजनीति के गठजोड़ पर अमेरिका से लेकर यूरोप तक बहुत अध्ययन किए जा चुके हैं और चिंताएं भी प्रकट की गई हैं. अमेरिकी चिंतक नॉम चॉमस्की ने जिस मैनुफेक्चरिंग कन्सेंट की बात की थी और जिसका इधर धड़ल्ले से इस्तेमाल साहित्य और पत्रकारिता विधा के पंडित करते रहे हैं- वो बात अंजाने में ही उन पर भी लागू हो रही है- उस उत्पादन के एक टूल वे भी बन रहे हैं.
Monday, March 25, 2019
Wednesday, March 20, 2019
मुकेश अंबानी को कभी जेल भिजवाना चाहते थे अनिल अंबानी
10 साल पहले अनिल अंबानी ने अपने भाई मुकेश अंबानी पर 10 हज़ार करोड़ की मानहानि का मुक़दमा दर्ज कराया था.
मुकेश अंबानी ने न्यूयॉर्क टाइम्स को इंटरव्यू दिया था जिसमें उन्होंने अनिल अंबानी पर अलग होने से पहले अपने ख़िलाफ़ लॉबीइस्ट और जासूस की एक टीम लगाने का आरोप लगाया था. इसी इंटरव्यू के बाद अनिल अंबानी ने मानहानि का मुक़दमा दर्ज कराया था.
इस हफ़्ते अनिल अंबानी का बिल्कुल अलग बयान आया. अनिल अंबानी ने कहा, ''मेरे आदरणीय भैया और भाभी को दिल से शुक्रिया और आभार. मुश्किल घड़ी में मेरे साथ आप खड़े रहे.''
मुकेश अंबानी ने अपने भाई की देनदारी चुकता कर उन्हें जेल जाने से बचाया है. पिता की मौत के बाद दोनों भाइयों में कड़वाहट की सारी हदें सार्वजनिक हुईं और धीरूभाई अंबानी का कारोबारी साम्राज्य रिलायंस का सिक्का दो हिस्सों में बँट गया था.
स्वीडन की कंपनी एरिक्सन की 7.7 करोड़ डॉलर की देनदारी को अनिल अंबानी को 20 मार्च तक चुकता करना था. सुप्रीम कोर्ट ने दो टूक कहा था कि अगर वो तय समय सीमा के भीतर चुकता नहीं करेंगे तो तीन महीने की जेल होगी.
अनिल ने पिछले साल ही ये देनदारी चुकाने का अदालत में वादा किया था लेकिन वादा तोड़ने के कारण कोर्ट ने अवमानना का दोषी क़रार दिया था. अनिल अंबानी की कंपनी आरकॉम इस रक़म का इंतज़ाम करने में नाकाम रही और मुकेश अंबानी तारणहार बने.
सुप्रीम कोर्ट की ओर से तय की गई समय सीमा से दो दिन पहले एरिक्सन ने कहा कि उसकी देनदारी आरकॉम ने ब्याज़ के साथ दे दी है. इसके बाद क़यास लगने लगे कि आरकॉम ने ये पैसे कहां से लाए.
देर रात इसका जवाब भी मिल गया जब अनिल अंबानी ख़ुद ही सामने आए और उन्होंने कहा कि अतीत की कड़वाहट भूलने के लिए वो अपने भाई के आभारी हैं.
दोनों भाइयों का अतीत बहुत ही नाटकीय रहा है. ऐसा तब है जब भारत के कारोबारी संसार में परिवारों का दबदबा है. धीरूभाई अंबानी की मौत के तीन साल बाद रिलायंस ग्रुप दोनों भाइयों के बीच बँट गया था.
मुकेश के हिस्से में पेट्रोलियम उत्पादों से जुड़ा कारोबार आया तो अनिल के हिस्से में संभावनाओं से भरे सेक्टर टेलिकॉम, ऊर्जा और फ़ाइनैंस आए.
दोनों भाइयों के बीच तनाव की स्थिति अलग होने से पहले ही बन गई थी लेकिन इसका उभार अलग होने के बाद हुआ. अनिल अंबानी ने मुकेश पर उनके नए पावर प्लांट में डील के हिसाब से गैस की आपूर्ति नहीं करने का आरोप लगाया था.
मुकेश अंबानी ने दक्षिण अफ़्रीका की टेलिकॉम कंपनी एमटीएन के अनिल अंबानी की टेलिकॉम कंपनी आरकॉम में प्रस्तावित विलय को रोक दिया था.
हाल के वर्षों में दोनों भाइयों के अतीत वाली दुश्मनी का असर कम होता दिखा. ऐसे में दोनों के बीच श्रेष्ठता को लेकर प्रतिस्पर्धा का भी अंत हो गया. आज की तारीख़ में मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज का मार्केट वैल्यू 124 अरब डॉलर से पार चला गया.
मुकेश की नई टेलिकॉम कंपनी जियो को लेकर भी निवेशकों में भारी उत्साह है. दूसरी तरफ़ अनिल अंबानी की लिस्टेड कंपनियों का मार्केट वैल्यू घटकर दो अरब डॉलर तक पहुंच गया है.
हालात ये हो गई कि अनिल एरिक्सन को 6.7 करोड़ डॉलर की देनदारी की रक़म का इंतज़ाम तक नहीं कर पाए. इसके उलट अनिल अंबानी 2008 में फ़ोर्ब्स की रैंकिंग में 42 अरब डॉलर के साथ दुनिया के आठवें सबसे अमीर शख़्स थे.
अभी मुकेश अंबानी 50 अरब डॉलर की निजी संपत्ति के साथ एशिया के सबसे अमीर शख़्स हैं. ऐसे में मुकेश अंबानी के लिए भाई का क़र्ज़ चुकाना कोई बड़ा सौदा नहीं था. इस मामले में मुकेश अंबानी बिल्कुल चुप रहे. ज़ाहिर है अगर वो कुछ बोलते तो कई तरह के क़यास लगाए जाते.
कुछ लोगों का मानना है कि इसमें मुकेश और अनिल की 84 साल की मां कोकिलाबेन का हाथ है. कोकिलाबेन ने ही 2005 में दोनों भाइयों के बीच रिलायंस ग्रुप का बँटवारा किया था.
बँटवारे के वक़्त यह बात तय हुई थी कि दोनों भाई रिलायंस शब्द का इस्तेमाल करेंगे लेकिन दोनों के कारोबार पूरी तरह से अलग हैं. कई विश्लेषकों का मानना है कि अगर अनिल अंबानी जेल जाते तो रिलायंस का ब्रैंड ख़राब होता.
दिसंबर 2017 में मुकेश अंबानी की जियो ने आरकॉम की संपत्तियों को ख़रीदने का समझौता किया था. इससे मुकेश अंबानी की जियो को स्पेक्ट्रम इन्फ़्रास्ट्रक्चर जल्दी हासिल करने में भी मदद मिली.
2018 में आरकॉम के शेयर में 60 फ़ीसदी की गिरावट आई थी और आख़िरकार टेलिकॉम सेक्टर से बोरिया-बिस्तर बांधने पर मजबूर हुए.
मुकेश अंबानी ने न्यूयॉर्क टाइम्स को इंटरव्यू दिया था जिसमें उन्होंने अनिल अंबानी पर अलग होने से पहले अपने ख़िलाफ़ लॉबीइस्ट और जासूस की एक टीम लगाने का आरोप लगाया था. इसी इंटरव्यू के बाद अनिल अंबानी ने मानहानि का मुक़दमा दर्ज कराया था.
इस हफ़्ते अनिल अंबानी का बिल्कुल अलग बयान आया. अनिल अंबानी ने कहा, ''मेरे आदरणीय भैया और भाभी को दिल से शुक्रिया और आभार. मुश्किल घड़ी में मेरे साथ आप खड़े रहे.''
मुकेश अंबानी ने अपने भाई की देनदारी चुकता कर उन्हें जेल जाने से बचाया है. पिता की मौत के बाद दोनों भाइयों में कड़वाहट की सारी हदें सार्वजनिक हुईं और धीरूभाई अंबानी का कारोबारी साम्राज्य रिलायंस का सिक्का दो हिस्सों में बँट गया था.
स्वीडन की कंपनी एरिक्सन की 7.7 करोड़ डॉलर की देनदारी को अनिल अंबानी को 20 मार्च तक चुकता करना था. सुप्रीम कोर्ट ने दो टूक कहा था कि अगर वो तय समय सीमा के भीतर चुकता नहीं करेंगे तो तीन महीने की जेल होगी.
अनिल ने पिछले साल ही ये देनदारी चुकाने का अदालत में वादा किया था लेकिन वादा तोड़ने के कारण कोर्ट ने अवमानना का दोषी क़रार दिया था. अनिल अंबानी की कंपनी आरकॉम इस रक़म का इंतज़ाम करने में नाकाम रही और मुकेश अंबानी तारणहार बने.
सुप्रीम कोर्ट की ओर से तय की गई समय सीमा से दो दिन पहले एरिक्सन ने कहा कि उसकी देनदारी आरकॉम ने ब्याज़ के साथ दे दी है. इसके बाद क़यास लगने लगे कि आरकॉम ने ये पैसे कहां से लाए.
देर रात इसका जवाब भी मिल गया जब अनिल अंबानी ख़ुद ही सामने आए और उन्होंने कहा कि अतीत की कड़वाहट भूलने के लिए वो अपने भाई के आभारी हैं.
दोनों भाइयों का अतीत बहुत ही नाटकीय रहा है. ऐसा तब है जब भारत के कारोबारी संसार में परिवारों का दबदबा है. धीरूभाई अंबानी की मौत के तीन साल बाद रिलायंस ग्रुप दोनों भाइयों के बीच बँट गया था.
मुकेश के हिस्से में पेट्रोलियम उत्पादों से जुड़ा कारोबार आया तो अनिल के हिस्से में संभावनाओं से भरे सेक्टर टेलिकॉम, ऊर्जा और फ़ाइनैंस आए.
दोनों भाइयों के बीच तनाव की स्थिति अलग होने से पहले ही बन गई थी लेकिन इसका उभार अलग होने के बाद हुआ. अनिल अंबानी ने मुकेश पर उनके नए पावर प्लांट में डील के हिसाब से गैस की आपूर्ति नहीं करने का आरोप लगाया था.
मुकेश अंबानी ने दक्षिण अफ़्रीका की टेलिकॉम कंपनी एमटीएन के अनिल अंबानी की टेलिकॉम कंपनी आरकॉम में प्रस्तावित विलय को रोक दिया था.
हाल के वर्षों में दोनों भाइयों के अतीत वाली दुश्मनी का असर कम होता दिखा. ऐसे में दोनों के बीच श्रेष्ठता को लेकर प्रतिस्पर्धा का भी अंत हो गया. आज की तारीख़ में मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज का मार्केट वैल्यू 124 अरब डॉलर से पार चला गया.
मुकेश की नई टेलिकॉम कंपनी जियो को लेकर भी निवेशकों में भारी उत्साह है. दूसरी तरफ़ अनिल अंबानी की लिस्टेड कंपनियों का मार्केट वैल्यू घटकर दो अरब डॉलर तक पहुंच गया है.
हालात ये हो गई कि अनिल एरिक्सन को 6.7 करोड़ डॉलर की देनदारी की रक़म का इंतज़ाम तक नहीं कर पाए. इसके उलट अनिल अंबानी 2008 में फ़ोर्ब्स की रैंकिंग में 42 अरब डॉलर के साथ दुनिया के आठवें सबसे अमीर शख़्स थे.
अभी मुकेश अंबानी 50 अरब डॉलर की निजी संपत्ति के साथ एशिया के सबसे अमीर शख़्स हैं. ऐसे में मुकेश अंबानी के लिए भाई का क़र्ज़ चुकाना कोई बड़ा सौदा नहीं था. इस मामले में मुकेश अंबानी बिल्कुल चुप रहे. ज़ाहिर है अगर वो कुछ बोलते तो कई तरह के क़यास लगाए जाते.
कुछ लोगों का मानना है कि इसमें मुकेश और अनिल की 84 साल की मां कोकिलाबेन का हाथ है. कोकिलाबेन ने ही 2005 में दोनों भाइयों के बीच रिलायंस ग्रुप का बँटवारा किया था.
बँटवारे के वक़्त यह बात तय हुई थी कि दोनों भाई रिलायंस शब्द का इस्तेमाल करेंगे लेकिन दोनों के कारोबार पूरी तरह से अलग हैं. कई विश्लेषकों का मानना है कि अगर अनिल अंबानी जेल जाते तो रिलायंस का ब्रैंड ख़राब होता.
दिसंबर 2017 में मुकेश अंबानी की जियो ने आरकॉम की संपत्तियों को ख़रीदने का समझौता किया था. इससे मुकेश अंबानी की जियो को स्पेक्ट्रम इन्फ़्रास्ट्रक्चर जल्दी हासिल करने में भी मदद मिली.
2018 में आरकॉम के शेयर में 60 फ़ीसदी की गिरावट आई थी और आख़िरकार टेलिकॉम सेक्टर से बोरिया-बिस्तर बांधने पर मजबूर हुए.
Thursday, March 7, 2019
लोकसभा चुनाव 2019: पुलवामा और बालाकोट के बाद कितनी बदली विपक्ष की सियासत
इसी साल फरवरी में जम्मू कश्मीर के पुलवामा में हुए चरमपंथी आत्मघाती हमले और उसके बाद पाकिस्तान में भारतीय वायु सेना की कार्रवाई की ख़बर के बाद भारत में राजनीतिक माहौल बदला है. इस बदले हुए राजनीतिक माहौल में विपक्ष की रणनीति और गठबंधन के समीकरण भी बदल रहे हैं.
लोकसभा सीटों के लिहाज़ से सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और लोकदल के गठबंधन ने कांग्रेस पार्टी के लिए दो सीटें छोड़ी हैं- रायबरेली और अमेठी.
समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव कह चुके हैं कि इन सीटों को छोड़ने का मतलब यही है कि कांग्रेस भी गठबंधन में शामिल है लेकिन कांग्रेस सभी सीटों पर चुनाव लड़ने की बात कह चुकी है.
इन सबके बीच क्या बदले राजनीतिक माहौल में गठबंधन के गणित में कोई बदलाव हो सकता है?
बहुजन समाज पार्टी के प्रवक्ता सुधींद्र भदौरिया कहते हैं, "जहां हमारी ताक़त है अगर कांग्रेस हमें वहां सीटें देती है तो हम कांग्रेस को बदले में सीटें क्यों नहीं देंगे? बिल्कुल देंगे."
भदौरिया का मतलब राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों से है जहां बहुजन समाज पार्टी उम्मीदवार तो उतारती रही है लेकिन उसे बड़ी जीत नहीं मिली है.
वो कहते हैं, "अभी विधानसभा चुनावों में हमें मध्य प्रदेश में सात प्रतिशत वोट मिला है, छह विधायक हमारे राजस्थान में जीते हैं. छत्तीसगढ़ में भी हमारा प्रतिशत ठीक-ठाक है. अगर हमारे इस जनमत का सम्मान गठबंधन में किया जाता है तो बात आगे ज़रूर बढ़ सकती है. अगर सम्मानजनक समझौता करेंगे तो समझौता क्यों नहीं होगा?"
भदौरिया ये तो स्वीकार करते हैं कि पुलवामा हमले के बाद देश का राजनीतिक माहौल बदला है लेकिन वो ये नहीं मानते कि इससे यूपी के गठबंधन पर कुछ असर होगा. वो कहते हैं, "अगर कोई आना चाहता है तो अखिलेश जी और मायावती जी से बात करे, स्वागत है. बात करने से ही बात होगी."
कांग्रेस का रुख़
वहीं कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला इस सवाल पर कहते हैं, "सपा हो या बसपा, राजनीतिक विचारों पर हमारी भिन्नता हो सकती है, लेकिन देशहित में अनेक मुद्दों पर हमारी समानता भी है. सपा और बसपा ने कांग्रेस का इंतज़ार किए बिना सभी सीटों का निर्णय अपने आप कर लिया, हमसे तो बात ही नहीं की."
"आज भी अगर सपा और बसपा खुले मन से चाहेंगे तो कांग्रेस पार्टी अवश्य विचार करेगी क्योंकि हम चाहते हैं कि हम सभी राजनीतिक दलों को एक मंच पर लाकर देश को मज़बूत करें."
रणदीप सुरजेवाला कहते हैं, "हमारी लड़ाई किसी व्यक्ति के ख़िलाफ़ नहीं है, न नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ न किसी और के ख़िलाफ़. हमारी लड़ाई उस विध्वंसकारी, नफ़रत से भरी हुई और बांटने वाली विचारधारा के ख़िलाफ़ है जिसका प्रतिनिधित्व नरेंद्र मोदी करते हैं."
सुरजेवाला ये स्वीकार करते हैं कि बीते कुछ दिनों में देश का राजनीतिक माहौल बदला है. भाजपा पर निशाना साधते हुए वो कहते हैं, "देश का राजनीतिक माहौल दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से सेना की शहादत के पीछे छुपे प्रधानमंत्री की राजनीति से प्रभावित हो रहा है."
सुरजेवाला कहते हैं कि उनकी पार्टी देश में बेरोज़गारी, रोज़ी-रोटी, किसान-मज़दूरों, छोटे उद्यमियों और दुकानदारों के मुद्दा उठाकर इस राजनीति का जबाव देगी.
वो कहते हैं, "इस देश में प्रजातंत्र, संवैधानिक परिपाटी और लोगों की रोजी-रोटी और जीवन को बचाने के लिए हम सबको एकजुट होकर हम सबको एक अहंकारी शासक और अहंकारी सरकार से मुक़ाबला करने की आवश्यकता है."
कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी के प्रवक्ता भले ही गठबंधन में गुंज़ाइश के संकेत दे रहो हों लेकिन समाजवादी पार्टी का स्पष्ट कहना है कि जो तय हो गया है वही अंतिम है.
पार्टी के वरिष्ठ नेता और अखिलेश यादव के सलाहकार राजेंद्र चौधरी कहते हैं, "पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव स्पष्ट कर चुके हैं कि हमने दो सीटें कांग्रेस के लिए छोड़ दी हैं और इसी आधार पर हम मानते हैं कि कांग्रेस भी गठबंधन में शामिल है. सपा, बसपा और लोकदल का गठबंधन ही उत्तर प्रदेश में विपक्ष की मुख्यधारा है और इसी के साथ वो मतदाता भी हैं जो सत्ता के ख़िलाफ़ हैं या सत्ता के सताए हुए हैं."
यादव कहते हैं, "गठबंधन में आगे किसी तरह के बदलाव की कोई गुंजाइश नहीं है. न ही गठबंधन को लेकर कोई नई बातचीत चल रही है."
राजेंद्र यादव इस बात को स्वीकार नहीं करते हैं कि पुलवामा हमले और पाकिस्तान में भारतीय वायुसेना की कार्रवाई का चुनावों पर कोई बड़ा असर होगा.
वो कहते हैं, "जनता सच्चाई जानती है. विपक्ष ने शहीदों के बलिदान को सराहा है. कोई एक राजनीतिक दल सेना का शौर्य लेने का दावा नहीं कर सकता है. जनता समझदार है और वो चुनावों में सेना के नाम के इस्तेमाल को भी समझती है."
लोकसभा सीटों के लिहाज़ से सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और लोकदल के गठबंधन ने कांग्रेस पार्टी के लिए दो सीटें छोड़ी हैं- रायबरेली और अमेठी.
समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव कह चुके हैं कि इन सीटों को छोड़ने का मतलब यही है कि कांग्रेस भी गठबंधन में शामिल है लेकिन कांग्रेस सभी सीटों पर चुनाव लड़ने की बात कह चुकी है.
इन सबके बीच क्या बदले राजनीतिक माहौल में गठबंधन के गणित में कोई बदलाव हो सकता है?
बहुजन समाज पार्टी के प्रवक्ता सुधींद्र भदौरिया कहते हैं, "जहां हमारी ताक़त है अगर कांग्रेस हमें वहां सीटें देती है तो हम कांग्रेस को बदले में सीटें क्यों नहीं देंगे? बिल्कुल देंगे."
भदौरिया का मतलब राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों से है जहां बहुजन समाज पार्टी उम्मीदवार तो उतारती रही है लेकिन उसे बड़ी जीत नहीं मिली है.
वो कहते हैं, "अभी विधानसभा चुनावों में हमें मध्य प्रदेश में सात प्रतिशत वोट मिला है, छह विधायक हमारे राजस्थान में जीते हैं. छत्तीसगढ़ में भी हमारा प्रतिशत ठीक-ठाक है. अगर हमारे इस जनमत का सम्मान गठबंधन में किया जाता है तो बात आगे ज़रूर बढ़ सकती है. अगर सम्मानजनक समझौता करेंगे तो समझौता क्यों नहीं होगा?"
भदौरिया ये तो स्वीकार करते हैं कि पुलवामा हमले के बाद देश का राजनीतिक माहौल बदला है लेकिन वो ये नहीं मानते कि इससे यूपी के गठबंधन पर कुछ असर होगा. वो कहते हैं, "अगर कोई आना चाहता है तो अखिलेश जी और मायावती जी से बात करे, स्वागत है. बात करने से ही बात होगी."
कांग्रेस का रुख़
वहीं कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला इस सवाल पर कहते हैं, "सपा हो या बसपा, राजनीतिक विचारों पर हमारी भिन्नता हो सकती है, लेकिन देशहित में अनेक मुद्दों पर हमारी समानता भी है. सपा और बसपा ने कांग्रेस का इंतज़ार किए बिना सभी सीटों का निर्णय अपने आप कर लिया, हमसे तो बात ही नहीं की."
"आज भी अगर सपा और बसपा खुले मन से चाहेंगे तो कांग्रेस पार्टी अवश्य विचार करेगी क्योंकि हम चाहते हैं कि हम सभी राजनीतिक दलों को एक मंच पर लाकर देश को मज़बूत करें."
रणदीप सुरजेवाला कहते हैं, "हमारी लड़ाई किसी व्यक्ति के ख़िलाफ़ नहीं है, न नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ न किसी और के ख़िलाफ़. हमारी लड़ाई उस विध्वंसकारी, नफ़रत से भरी हुई और बांटने वाली विचारधारा के ख़िलाफ़ है जिसका प्रतिनिधित्व नरेंद्र मोदी करते हैं."
सुरजेवाला ये स्वीकार करते हैं कि बीते कुछ दिनों में देश का राजनीतिक माहौल बदला है. भाजपा पर निशाना साधते हुए वो कहते हैं, "देश का राजनीतिक माहौल दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से सेना की शहादत के पीछे छुपे प्रधानमंत्री की राजनीति से प्रभावित हो रहा है."
सुरजेवाला कहते हैं कि उनकी पार्टी देश में बेरोज़गारी, रोज़ी-रोटी, किसान-मज़दूरों, छोटे उद्यमियों और दुकानदारों के मुद्दा उठाकर इस राजनीति का जबाव देगी.
वो कहते हैं, "इस देश में प्रजातंत्र, संवैधानिक परिपाटी और लोगों की रोजी-रोटी और जीवन को बचाने के लिए हम सबको एकजुट होकर हम सबको एक अहंकारी शासक और अहंकारी सरकार से मुक़ाबला करने की आवश्यकता है."
कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी के प्रवक्ता भले ही गठबंधन में गुंज़ाइश के संकेत दे रहो हों लेकिन समाजवादी पार्टी का स्पष्ट कहना है कि जो तय हो गया है वही अंतिम है.
पार्टी के वरिष्ठ नेता और अखिलेश यादव के सलाहकार राजेंद्र चौधरी कहते हैं, "पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव स्पष्ट कर चुके हैं कि हमने दो सीटें कांग्रेस के लिए छोड़ दी हैं और इसी आधार पर हम मानते हैं कि कांग्रेस भी गठबंधन में शामिल है. सपा, बसपा और लोकदल का गठबंधन ही उत्तर प्रदेश में विपक्ष की मुख्यधारा है और इसी के साथ वो मतदाता भी हैं जो सत्ता के ख़िलाफ़ हैं या सत्ता के सताए हुए हैं."
यादव कहते हैं, "गठबंधन में आगे किसी तरह के बदलाव की कोई गुंजाइश नहीं है. न ही गठबंधन को लेकर कोई नई बातचीत चल रही है."
राजेंद्र यादव इस बात को स्वीकार नहीं करते हैं कि पुलवामा हमले और पाकिस्तान में भारतीय वायुसेना की कार्रवाई का चुनावों पर कोई बड़ा असर होगा.
वो कहते हैं, "जनता सच्चाई जानती है. विपक्ष ने शहीदों के बलिदान को सराहा है. कोई एक राजनीतिक दल सेना का शौर्य लेने का दावा नहीं कर सकता है. जनता समझदार है और वो चुनावों में सेना के नाम के इस्तेमाल को भी समझती है."
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